धार्मिक स्थलों पर विवाद को बढ़ावा देना भारत की एकता के लिए हानिकारक है – मोहन भागवत (निर्मल कुमार की कलम से)
धार्मिक स्थलों पर विवाद को बढ़ावा देना भारत की एकता के लिए हानिकारक है – मोहन भागवत
(निर्मल कुमार की कलम से)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में पुणे में दिए गए एक प्रभावशाली भाषण में देशवासियों से आग्रह किया कि वे विभाजनकारी बयानों को नकारें और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को अपनाएं। ‘विश्वगुरु भारत’ शीर्षक से आयोजित व्याख्यान श्रृंखला के दौरान उन्होंने कहा कि भारत को दुनिया के सामने यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए कि कैसे विभिन्न धर्म और विचारधाराएं आपस में सौहार्दपूर्वक रह सकती हैं। उत्तर प्रदेश के संभल में स्थित शाही जामा मस्जिद और राजस्थान के अजमेर शरीफ जैसे धार्मिक स्थलों को लेकर उभरे विवादों का संदर्भ देते हुए भागवत ने कहा कि धार्मिक स्थलों पर विवादों को बढ़ावा देना भारत की एकता के लिए हानिकारक है। उन्होंने कहा, “नफरत और दुश्मनी के आधार पर नए मुद्दे उठाना अस्वीकार्य है। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए और उन गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए, जिन्होंने समाज में विघटन को बढ़ावा दिया है।”
विकास और एकता के बीच संतुलन आवश्यक
भारत इस समय विकास और विश्व नेतृत्व के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि देश अपनी महत्वाकांक्षाओं और आंतरिक असमानताओं के बीच संतुलन स्थापित करे। भागवत ने स्पष्ट किया कि राम मंदिर का मामला एक लंबे समय से हिंदू आस्था से जुड़ा मुद्दा था, जबकि वर्तमान में उठाए जा रहे अन्य धार्मिक स्थलों के विवाद अधिकतर नफरत और वैमनस्य से प्रेरित हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसे मुद्दों को उठाने से न केवल धार्मिक समुदायों के बीच दरार पैदा होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचता है।उन्होंने कहा कि भारत का गौरवशाली अतीत हमेशा से समावेशिता, सहिष्णुता और विभिन्न विचारधाराओं के प्रति सम्मान का समर्थक रहा है। भारत ने अपनी प्राचीन परंपराओं के माध्यम से कट्टरता, आक्रामकता और बहुसंख्यकवाद जैसे विचारों को नियंत्रित किया है। भागवत ने दोहराया कि किसी को भी श्रेष्ठता का दावा नहीं करना चाहिए, बल्कि भारत के सहिष्णु अतीत से प्रेरणा लेकर सभी धर्मों को, विशेषकर अल्पसंख्यकों को, उनके लिए उचित स्थान और सम्मान देना चाहिए।
भारत की ताकत: बहुलतावाद और समावेशिता
भारत की ताकत इसकी बहुलतावादी संस्कृति में निहित है, जिसने सदियों से देश को विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के संगम स्थल के रूप में फलने-फूलने का अवसर दिया है। उन्होंने कहा कि भारत की पहचान बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे द्वैत से परे है। जब हर व्यक्ति भारत की समग्र पहचान को समझेगा, तब बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की सोच स्वतः समाप्त हो जाएगी। “हम सब एक हैं” का विचार तब एक वास्तविकता बन जाएगा।
भागवत ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को भय और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अपने धर्म का पालन करने का अधिकार होना चाहिए। भारत का संविधान भी समानता और धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करता है, और यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम इन सिद्धांतों का पालन करें।
हिंदू-मुस्लिम एकता और संवाद की आवश्यकता
देश में बढ़ते विभाजनकारी माहौल को देखते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता और समाज में सद्भावना को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता है। भागवत ने कहा कि दोनों समुदायों को समानताओं को प्राथमिकता देनी चाहिए और मतभेदों को दूर करने के लिए संवाद और सहयोग का रास्ता अपनाना चाहिए।
सोशल मीडिया के दौर में, जहां विभाजनकारी विचार तेजी से फैलते हैं, संयम और समझदारी आवश्यक है। उकसाने वाले बयानों को खारिज करना और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखना, सामूहिक प्रयासों के मुख्य स्तंभ होने चाहिए।
शिक्षा और धार्मिक नेतृत्व की भूमिका
भागवत ने धार्मिक नेताओं और समुदाय के प्रभावशाली व्यक्तियों की भूमिका पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि धार्मिक नेता संवाद और मेल-मिलाप को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा, शैक्षणिक संस्थानों को भी छात्रों में सहिष्णुता, करुणा और आपसी सम्मान जैसे मूल्यों को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए।
भारत: विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर
भागवत ने कहा कि दुनिया भारत की ओर देख रही है, और हमें एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे यह सिद्ध हो कि धार्मिक और वैचारिक विविधता संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत हो सकती है। यदि भारत आंतरिक मतभेदों को सुलझाकर अपनी एकता को मजबूत करता है, तो वह वैश्विक स्तर पर नेतृत्व कर सकता है।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह लक्ष्य केवल सरकार या किसी एक संगठन की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक भारतीय नागरिक, समुदाय और संस्था का दायित्व है। उन्होंने कहा, “हर व्यक्ति को अपने विश्वास और पूजा-पद्धति का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।”
भागवत का भाषण न केवल भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने का आह्वान है, बल्कि यह देशवासियों के लिए एक चेतावनी भी है कि वे विभाजनकारी विचारधाराओं से दूर रहें। यह भाषण भारत के लिए एक दिशा-निर्देश है कि वह अपनी सहिष्णुता और बहुलतावादी परंपराओं के आधार पर विश्वगुरु बनने की अपनी यात्रा को जारी रखे।